फरीदाबाद:3 अक्टूबर (National24news) आज शहरों में लोगों की जीवन शैली दिन पर दिन अति आधुनिक होती जा रही है और अपने को आधुनिक का प्रतीक दिखाने के चक्कर में अपनी खुशियों के पैमाने और अर्थ दोनों ही बदलते जा रहे हैं। आजकल लोगों की नये तरीके की जीवन शैली विकास की कमशकश और भागमभाग से त्रास्त दिख रही है। केवल ऊपरी मुस्कान का दिखावा बढ़ रहा है - अंतर की वास्तविक खुशी तो गायब हो रही है। आधुनिक हो रहे जीवन में यदि आराम बढ़ता है तो कोई विवाद नहीं हो सकता, पर आज की आधुनिकता की कीमत परिवार के तनावमुक्त स्वस्थ वातावरण की बलि देकर नहीं चुकाई जा सकती। शायद हमारे बच्चे पहले ही ऐसे वातावरण से वंचित होते जा रहे हैं और हमारे वो संबंध जो हमें आपस में बांधे रखते थे, बड़ी तेजी से समाप्ति की ओर जा रहे हैं।
आज हमें अपने निजी व्यवहार और जीवन शैली में आ गये बदलाव पर अत्यधिक विचार करने की तीव्र आवश्यकता है और इस काम में हमारी परम्पराओं की संस्कृति हमारी सहायता अच्छी तरह कर सकती है। अपने परिवारों के बीच प्रेम और सम्मान का वातावरण तथा परस्पर सद्भावना के निर्माण के लिए ऐसे ही कछ विचारों पर हम ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं जो हमारी मदद हमेशा करते हैं।
1. सेवा: यह एक ऐसा संबोधन है जिसमे ंअपने कर्तव्य बोध के साथ समर्पण भी जुड़ा है। व्यक्तिगत रूप से मेरा अनुभव यही रहा है कि घर की नौकरानी द्वारा दी गई एक कप चाय.....और घर के परिवार के सदस्य पत्नी, पुत्राी और या पुत्रावधू द्वारा प्रस्तुत एक कप चाय...........मिठास का अंतर तो अनुभव हो ही जाता है। पहले वाली चाय में शायद केवल कर्तव्य बोध है जबकि दूसरी में कर्तव्य के साथ अनुराग भी बांध लेता है। यही भावना ही धीरे-धीरे आगे चलकर प्रेम और सम्मान में बदल जाती है।
2. परिवार कक्ष: हमारे घर में एक तो जगह ऐसी जरूर हो, जहां घर के सभी सदस्य मिल बैठकर टीवी देखें और आपसे अपने अनुभव और विचार सांझा करें। आजकल तो बड़े सुन्दर सुन्दर ड्राइंग रूम होते हैं, जो घरों में आने वाले मेहमानों का ही इंतजार करते हैं, परन्तु वहां घर-परिवार के लोग भी तो कभी-कभार ही दिखाई पड़ते हैं। वैसे मोबाईल पफोन पर व्यक्तिगत बातें करने के लिए बड़ा सुविधाजनक स्थान हेाता है - आपका ड्राइंग रूम....।साथ साथ बैठने बात करने के अवसर तो बहुत कम ही घर में मिलते हैं। हमको आपको, आजकल तो हर कोई अपने बैडरूम में टीवी से अपनी आंखें चिपकाए दिखता है.....। इन आधुनिक सुविधाओं ने तो खुशी के नाम पर हमारी पारिवारिक सुख शांति और सह अस्तित्व की भावना को ही ग्रहण लगा दिया है। अगर हम सब साथ बैठे होते तो हो
सकता था कि सभी मिलकर किसी एक टीवी प्रोग्राम को देखने पर
एकमत हो जाते। यह भी हो सकता था कि अपनी-अपनी पसंद का
विवाद होने की स्थिति में समाधान के लिए घर की मुखिया की बात को अंतिम निर्णय मानकर सब साथ होते। हमारे अलग-अलग शयन कक्षों ने तो हमें इस हद तक बांट दिया है कि हमारे अंदर से सहनशीलता और दूसरे विचारों से सांमजस्य बनाने की क्षमता ही समाप्त होती जा रही है।
3. बैंक खाते: घर परिवार े सभी धन कमाने वाले सदस्यों ने अपने पूर्णतः व्यक्तिगत खाते खुलवा रखे हैं और उनमें आपस में समय पर खर्च न करने की होड़ सी लगी होती है। कोई किसी पर आश्रित नहीं है और यह उनकी पूर्ण स्वतन्त्रता है। इस पूर्ण स्वतन्त्राता ने घरों के अंदर की एकता को छिन्न भिन्न कर दिया है। वास्तव मे, आज तो नगरों घर है नहीं, ये तो सभी मकान है....फ्रलैट या पेइंग गेस्ट हाॅस्टल जैसी जगहे हैं.....।
आजकल के 20-30 साल के नौजवानों की घर की समझ को तो शायद आधुनिकता की नजर लग गई है। उन्हें पुरानी घर परम्परा के बारे में तो किसी ने बताया सिखाया नहीं और न ही उन्हें कुछ वैसा शहर में देखने को मिला। उनके लिए तो अपनी स्वतन्त्राता और निजता ही अधिक मायने रखती है। उनकी दुनिया बस उनके अपने दोस्तों तक है, बाकी सारे संबंध तो महत्वहीन या गौण हैं।
अभी हाल ही में, मैंने कुछ हफ्रतों का समय एक ग्रामीण परिवार के संग बिताया, जहां मुझे लगा कि मैं स्वर्ग में हूं भले ही वह एक गांव था। उस परिवार के मुखिया का सम्मान, उस घर के सभी सदस्य बिना कहे ही कर रहे थे। किसी को कुछ भी बताने या कहने की जरूरत ही नहीं थी। ‘घर की समझ’ के साथ वास्तव में पूरी तरह यही उचित वंशानुक्रम (वंश में श्रेष्ठता क्रम) का एक सवोत्तम उदाहरण था। अलग-अलग बेडरूमों या शयनकक्षों की उन लोगों के लिए, जिन्होंने पुरानी परम्पराओं का समय देखा है और घर परिवार का अर्थ सही मायने में जानते हैं उनकी इन मूल्यों के प्रति समाज को जागरूक करने की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। आज इस बात की जरूरत है कि स्कूल और घरों में बच्चों को इन जीवन मूल्यों को सिखाया जाये। कुछ लोग कह सकते हैं कि सेवा, अनुक्रम, सम्मान आदि पुरातनपंथी विचार है, परन्तु आज इसी पुरातन की अति आवश्यकता है। अतः इससे पहले कि हम जीवन की अंधी दौड़ में बहुत दूर निकल जाएं, अच्छा होगा कि आ अब हम लौट चलें....।