फरीदाबाद:29अक्टूबर (National24news) विश्वास एक ऐसा शब्द है जिससे साधारण से साधारण व्यक्ति भी परिचित है। धनवान् हो या निर्धन, शिक्षित हो या अशिक्षित, शहरी हो या ग्रामीण सभी जानते हंै कि विश्वास संसार के हर रिश्ते का एक अनिवार्य अंग ही नहीं उसकी सफलता का प्रमुख द्वार है। हमारे सम्बन्ध घर-परिवार के सदस्यों के साथ हों, अपने कार्यालय या कम्पनी में अपने ऊपर या नीचे के स्तर के सहयोगियों से हों, मित्रों या ग्राहकों से हों तभी सुखद और स्थाई हो सकते हैं यदि उन्हें हमारे प्रति और हमें उनके प्रति विश्वास बना रहे, कायम रहे।
ईश्वर के साथ हमारा भक्ति का नाता है। प्रेम के साथ-साथ यहाँ भी विश्वास भक्ति का एक अनिवार्य अंग है, इसकी सफलता की कंुजी है। जहाँ प्रेम शरीरों का मोहताज है, विश्वास के लिए इष्टदेव भगवंत के गुण, उसकी शक्तियां आधार बनती हैं। इसीलिए आध्यात्मिक जगत् में प्रायः विश्वास की बजाय ‘श्रद्धा’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। भक्ति में जब हम निराकार प्रभु परमात्मा से प्रेम करना चाहते हंै तो साकार सत्गुरु, ब्रह्मज्ञानी संतों अथवा इसके बन्दों को माध्यम बना लेते हैं परन्तु श्रद्धा सीधे ही निरंकार में व्यक्त करते हैं। श्रद्धा में एक अवस्था ऐसी भी आ जाती है जब भक्त और भगवन्त एक हो जाते हैं और भक्त निराकार से वह नोंक-झोंक कर जाते हैं जो साधारणतः प्रेम-संबंध में होती है, जैसे-
जउ पै हम न पाप करंता अहे अनंता,
पतित् पावन नाम तेरो कैसे हुंता!
अर्थात् यदि हम पाप नहीं करते तो तुम पतित-पावन कैसे कहलाते, यानि यदि आप हमारे लिए विशेषता रखते हैं तो आपके लिये हमारा अस्तित्व भी कम महत्वपूर्ण नहीं।
इसी प्रकार -
जउ हम बांधे मोह फास हम प्रेम बंधन तुम बांधे,
अपने छूटन कउ जतन करौ हम छूटे तुम आराधे।
अर्थात् हे ईश्वर! यदि तुमने हमें मोह माया के बंधनों में जकड़ रखा है तो हमने भी तुम्हें अपने प्रेम के बंधन में जकड़ लिया है। हम तो तुम्हारी आराधना करके छूट जायेंगे मगर तुम हमारे प्रेम के बन्धन से कैसे छूट पाओगे?
भक्ति में विश्वास अथवा श्रद्धा का अर्थ है पूर्ण समर्पण। हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना तो करते हैं मगर यह अधिकार ईश्वर को ही देते हैं कि यह हमें क्या, कितना और कब देता है, देता भी है कि नहीं देता है। हमें विश्वास रहता है कि इसका निर्णय ही हमारे हित में है। हम तो अपने हितों के बारे में अंजान हो सकते हैं मगर ईश्वर सब जानता है। यहाँ राजा जनक अपने राज-पाट का अभिमान नहीं करते और न ही कबीर जी सांसारिक पदार्थों की कमी के लिए शिकवा-शिकायत करते हैं, मगर दोनों ही एक जैसी आनन्द की स्थिति में हैं क्योंकि दोनों को ही ईश्वर ने जो कुछ प्रदान किया है उससे संतुष्ट हैं, प्रसन्न हैं। दोनों ही ब्रह्यज्ञानी हैं, ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखते हुए समर्पित भाव से विचरण करते हैं।
विश्वास हमें असत्य से निकालकर सत्य की ओर अग्रसर करता है। अनेकता की भटकन से निकालकर एक में स्थित करता है। विश्वास पूर्ण पर ही टिकेगा किसी अधूरेपन की गुंजाइश ही नहीं। यह विश्वास ही है जो हमें अपनी मंजिल परम् सत्य ईश्वर तक पहुँचाता है। हमने पूर्ण सत्गुरु पर विश्वास किया तो उसी ने हमें यह मंजिल दी जिसके बाद हमें न किसी अन्य मार्गदर्शक की आवश्यकता महसूस होती है न किसी अन्य भगवंत की।
विश्वास हमारा भाग्य बदल देता है जीवन में क्रांति लाने का कारण बन जाता है। कहा जाता है कि एक अंधा व्यक्ति हज़रत ईसा मसीह जी के पास आया और कहने लगा - ’’प्रभु मेरी आँखों पर हाथ फेर दो मुझे विश्वास है कि मुझे मेरी नज़र मिल जायेगी।’’ उन्होंने लाख मना किया कि यह शक्ति मेरे पास नहीं है परन्तु नेत्रहीन व्यक्ति यही कहता रहा कि मुझे विश्वास है कि आपके हाथ फेरने से मुझे मेरी नज़र मिल जायेगी। अंत में हज़रत ईसा मसीह जी मान गए और जैसे ही उन्होंने उसकी आंखों पर हाथ फेरा उसको दिखाई देने लग गया। कह उठा कि श्देखा प्रभु, मुझे विश्वास था कि आपके हाथों में यह शक्ति है।श् आगे से प्रभु बोले - श्यह मेरी शक्ति का नहीं तुम्हारे विश्वास का चमत्कार है।श् इस तरह विश्वास हमारा भाग्य बदल देता है।
ईश्वर पर विश्वास आने से हमारा मन शुद्ध हो जाता है। हमारे अंदर से तमाम विपरीत भावनायें दूर हो जाती हंै और प्यार, प्रीत, नम्रता, सहनशीलता जैसे मानवीय गुणों को स्थान देती हैं, हमारे जीवन को सुंदर बना देती हैं। ईश्वर पर विश्वास इसकी रज़ा में रहने का, अपने अंदर सब्र संतोष की भावना को प्रबल करने का साधन बन जाता है।
विश्वास हमारे व्यक्तिगत अनुभव का परिणाम होता है। किसी के कहे सुने पर विश्वास करना तो अंध विश्वास ही कहलाता है जो व्यक्ति को लाभ कम हानि अधिक देता है। हमारा ज्ञान, भक्ति सब व्यक्तिगत होते हैं। सेवा, सत्संग, सुमिरण हमारा अपना-अपना होता है।
विश्वास हमें दूसरों के निकट होने का साधन बनता है। संतों भक्तों का मानना है कि हम सभी पर विश्वास करें और इस बात के लिए भी तैयार रहें कि हो सकता है उनमें से कोई छल करने वाला भी निकल आए। परन्तु यह नीति उस नीति से कहीं बेहतर है जिसमें हम किसी पर भी विश्वास न करें और किसी से भी धोखा न खायें।
संत निरंकारी मिशन में हमें प्रेरणा दी जाती है कि हम संतों का संग करें ताकि हमारा ईश्वर प्रभु परमात्मा पर विश्वास बना रहे और इसके दिव्य गुणों का लाभ हम अपने सामाजिक अथवा सांसारिक जीवन में भी प्राप्त कर सकें।
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