फरीदाबाद : 3जुलाई(National24news) हम आज एक विशेष क्षेत्रा में अपनी पहचान बना रहे हैं - मेरा संकेत आजकल के अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने वाले स्कूलों से है। अधिकांश परिवारों के लोग भारत में घर में अपनी घरेलू भाषा में ही बात करते हैं परन्तु अपने छोटे-छोटे बच्चों को अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में दाखिला दिलाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते। क्यों?
ये (तथाकथित) अंग्रेजी स्कूल तो मोह पाश के मायाजाल की तरह हैं जो देखने में बहुत सुन्दर और आकर्षक लगते हैं परन्तु छोटे बच्चों की जिज्ञासा और कौतूहल को अनजाने में मार देते हैं। खूबसूरत यूनिपफार्म में सजा-धजा बच्चा स्कूल की अपनी उस कक्षा के कमरे में घुसरता है जहां न केवल उसके घूमने पिफरने पर बंदिशे हैं। उस कमरे से बिना पूछे बाहर नहीं जा सकता बल्कि एक ऐसे भाषा माध्यम से उसका सामना होता है जिसे वह नहीं क बराबर जानता है। कितना कष्टकारक होगा यह दृश्य कल्पना कीजिए आप कुछ ऐसे लोगों से घिर गए हो- जो केवल पश्तो (अनजानी) भाषा में ही बोल रहे हो और आप....।
फिर भी वह बच्चा तेा बहुत उदार है जो ऐसी पिफल्म के दृश्यों को देखने समझने का साहस करता है जिसे वह समझता ही नहीं। शायद वह इसे ऐसे रोमांचक कार्य के रूप में लेता है। जिसमें उसे लगता है कि एक दिवस ऐसा भी होगा। जब वह इस भाषा अवरोध को पार कर लेगा चले चलो...। जो कुछ भी हो, थोड़े समय में ही उसके दिमाग में अर्थहीन अंकों और तुकबंदियों की भीड़ लग जाती है लेकिन अपनी क्लास के सहपाठियों की दोस्ती के सहारे शायद वह अपनी अरूचिकर आनंदविहीन यात्रा जारी रखता है। जहां उसे खिलौने खेलने और उछलकूद के अवसरों की आशा होती है। चतुर्दिक हरियाली से लेकर अपनी क्लास तक के भिन्न-भिन्न वातावरण से वह भिन्न-भिन्न बातें सीखता है। उसका इम्तिहान लिया जाता है। उसे प्रश्न पत्रा हल करने को दिया जाता है, भले ही वह उसे पढ़ नहीं सकता तो क्या हुआ। उसका शिक्षक उसे बताता है कि उसे क्या करना है। उसे इस तरह का होमवर्क मिलता है जिसे वह खुद नहीं कर सता और आशा यह की जाती है कि वह करके लाए और उस पर सर्दियों में भी सुबह जल्दी-जल्दी उठना और स्कूल बस पकड़ने की आपाधापी...।
जिन्दगी बहुत कठिन....पर दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं है। अगर बच्चों को बाहर घूमने दौड़ने की आजाद दे दी जाए तो क्लास में किसी बच्चे को बैठा देख मुझे आश्चर्य ही होगा (यदि वह स्वस्थ है तो) क्या हम ऐसे स्वस्थ शिक्षण तंत्रा का विकास नहीं कर सकते। जहां अधिक आजादी हो और जहां बच्चे को इतस तरह पढ़ाया जा सके। जिससे उसकी सीखने की जिज्ञासा और कौतूहल को जानने का भाव अर्थपूर्ण ढंग से तजी से बढ़ सके।
जी हां यह संभव है यदि प्रगतिवादी स्कूल, बच्चों की उम्र को ध्यान में रखते हुए स्वस्थ, यथार्थपरक ओर गुणवत्तायुक्त मूल्य परक शिक्षा प्रदान करने के लिए ऐसी संभावनाओं पर ईमानदारी से विचार करें जो उचित समाधान और हल प्रदान कर से। परिणाम बहुत ही उत्तम होगा। यूरोपियन स्कूल इसके उदाहरण है। भारत में भी कुछ ऐसे स्कूल है परन्ु उनकी संख्या बहुत ही कम है। भारत के अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों ने अभिभावकों को भी इस हद तक दिगभ्रमित कर दिया है कि वे भी इस अंधी दौड़ में शामिल होने में बहुत गर्व महसूस करते हैं और अपने नन्हें अबोध बच्चों को भविष्य का आईस्टाइन बनते देखने का दिवास्वप्न पाले हुए हैं - जो कभी भी नहीं होने वाला।
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